स्पेशल डेस्क : अयोध्या के राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का विवाद करीब 165 साल पुराना है. इतने लंबे कालखंड में इसे हल करने के प्रयास भी हुए और विवादों के नये-नये चेहरे भी उभरे. इनमें छह दिसंबर 1992 की घटना सबसे बड़ी है, जब विवादित ढांचे का एक हिस्सा तोड़ा गया.
आज बाहरी दुनिया में अयोध्या इस विवाद को लेकर सुर्खियों में है, पर अदालत पर खुद अयोध्या को जितना भरोसा है, वह बाकी दुनिया को बड़ा पैगाम देता है. 35 सालों में अदालतों के फैसलों से कोई हल नहीं निकल पाया. अब सुप्रीम कोर्ट के माकूल फैसले का इंतजार है.
छह दिसंबर, 1992 के बहुप्रचारित विध्वंस से अब तक, 26 सालों में अयोध्या को लेकर देश-दुनिया की बहुरंगी अवधारणा और खुद अयोध्या का सहकार भरा जीवन, दो अलग-अलग तस्वीरें हैं, समय की अलग-अलग धाराएं हैं. इसके अंत:प्रवाह की अजस्र धाराएं जय और पराजय के भाव से काफी दूर हैं.
गंगा-जमुनी तहजीब अब भी कायम
गंगा-जमुनी तहजीब यहां अब भी कायम है. अयोध्या के इस रूप को देखने के लिए अयोध्या की धरती पर उतरना होगा. अयोध्या सप्तपुरी- अयोध्या, मथुरा, द्वारका, काशी, हरिद्वार, उज्जैन और कांचीपुरम में अग्रगण्य है, जहां ‘राम लीन्ह अवतार’. गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में भगवान श्रीराम के मुंह से उसे ‘जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि’ कहलवाया. इस पुरी का जनपद तब कोशल था.
काफी पेचीदगियां हैं इस मामले में
यहां समझने की एक बड़ी बात यह भी है कि न्यायालय का फैसला आ जाये, तो भी ढेर सारी पेचीदगियों के कारण विवादित भूमि पर फौरन कोई निर्माण संभव नहीं है, क्योंकि किसी-न-किसी नुक्त-ए-नजर से उससे असंतुष्ट पक्षों के पास फैसला सुनाने वाली पीठ से बड़ी पीठ में पुनर्विचार की मांग करने का विकल्प उपलब्ध होगा.
विवादित 2.77 एकड़ भूमि 1993 के अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून के तहत केंद्र द्वारा अधिग्रहित कोई सत्तर एकड़ भूमि का हिस्सा है और उसकी इस अवस्थिति के खिलाफ उठायी गयी सारी आपत्तियां पूरी तरह दरकिनार की जा चुकी हैं.
पहले रद्द करना होगा ये कानून
संसद ने विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए उक्त कानून सर्वसम्मति से पारित किया था. केंद्र सरकार को मंदिर समर्थकों के दबाव में राम मंदिर निर्माण का कानून बनाने से पहले इस कानून को रद्द करना होगा. राष्ट्रपति को बताये गये अधिग्रहण के उद्देश्यों के अनुसार अधिग्रहित भूमि पर राम मंदिर, मस्जिद, संग्रहालय, वाचनालय और जनसुविधाओं वाले पांच निर्माण लाजिमी होंगे.
सर्वोच्च न्यायालय का है ये सुझाव
इनकी बाबत सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव है कि अंतिम फैसले के बाद विवादित भूमि के वास्तविक स्वामी या स्वामियों को उसके या उनके पूजा-स्थल के निर्माण के लिए उक्त भूमि का बड़ा हिस्सा दिया जाये, लेकिन इससे किसी पक्ष में जय और किसी में पराजय का भाव न उत्पन्न हो, इसके लिए भूमि का छोटा हिस्सा मुकदमा हारने वाले पक्ष के पूजा-स्थल के लिए भी दिया जाये. साफ है कि न्यायालय का फैसला किसी के भी पक्ष में हो, अधिग्रहित भूमि में मंदिर व मस्जिद दोनों बनाने होंगे.
निर्माण में इनकी हिस्सेदारी मुमकिन नहीं
फैसले के बाद यह सवाल भी उठेगा कि अधिग्रहीत भूमि पर संबंधित मंदिर या मस्जिद कौन बनाये? देश के धर्मनिरपेक्ष रहते सरकार स्वयं यह काम कर नहीं सकती और अधिग्रहण कानून के मुताबिक वह बाध्य है कि इसके लिए भूमि उन्हीं संगठनों को प्रदान करे, जिनका गठन उक्त अधिग्रहण कानून बनने के बाद किया गया हो.
इस कारण फैसला राम मंदिर के पक्ष में होने के बावजूद विश्व हिंदू परिषद समेत किसी संघ परिवारी संगठन की उसके निर्माण में कोई हिस्सेदारी मुमकिन नहीं है. इससे अंदेशा है कि फैसले के बाद मंदिर या मस्जिद निर्माण की दावेदारी को लेकर नये विवाद न्यायालय पहुंच जाएं और उनकी सुनवाई में भी खासा वक्त लगे.
वादी हाशिम अंसारी और प्रतिवादी परमहंस रामचंद्र ताउम्र रहे दोस्त
छह दिसंबर, 1992 को ध्वस्त किये गये विवादित ढांचे की भूमि का स्वामित्व विवाद न्यायिक प्रक्रिया में लंबित है. अब न बाबरी मस्जिद के वादी हाशिम अंसारी इस दुनिया में हैं, न प्रतिवादी परमहंस रामचंद्र दास, मगर इन दोनों का धैर्य इस मायने में लाजवाब था कि इंसाफ की लंबी प्रतीक्षा में भी वे आजीवन एक दूजे के दोस्त बने रहे.
हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे, जो आजादी के समय से बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और कानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ रहे थे, तब भी, जब छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का ढांचा टूटा.
उस दंगे में बाहर से लोगों ने उनका घर जला दिया, मगर अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचाया. उन्होंने मक्का की हज के दौरान भी अपने भाषणों में मुस्लिम देशों को यही बताया कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को कई मुस्लिम मुल्कों से ज्यादा और बेहतर आजादी है. परमहंस रामचंद्र दास ने भी इस दोस्ती को कायम रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
‘मैं 49 से मुकदमे की पैरवी कर रहा हूं, लेकिन आज तक किसी हिंदू ने हमको एक लफ्ज गलत नहीं कहा. हमारा उनसे भाई चारा है. वे हमको दावत देते हैं. मैं उनके यहां सपरिवार दावत खाने जाता हूं.’ (मृत्यु के कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में)
क्या था इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला
हाइकोर्ट ने रामलला की प्रतिमा नहीं हटाने का आदेश दिया. फैसले के मुताबिक चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा सहित कुछ भागों पर निर्मोही अखाड़े का भी कब्जा रहा है. लिहाजा यह हिस्सा उसके पास रहेगा. तीन जजों की बेंच के दो न्यायाधीशों ने का फैसला था कि जमीन के कुछ भागों पर मुसलमान नवाज अता करते रहे हैं. लिहाजा विवादित जमीन का एक तिहाई हिस्सा मुसलमान संगठन को दिया जाए. हाइकोर्ट के इस फैसले को मानने से हिंदू और मुस्लिम, दोनों संगठनों ने इनकार कर दिया और दोनों ही संगठन सुप्रीम काेर्ट पहुंचे.
आठ साल से मामला सुप्रीम कोर्ट में है
इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के बाद से यानी पिछले आठ सालों से जाम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद सुप्रीम कोर्ट में है. फैसले को चुनाैती देने के सात सात बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि 11 अगस्त 2017 से तीन जजों की बैंच इस मुकदमे की हर दिन सुनवाई करेगी, मगर सुनवाई शुरू होने के से ठीक पहले शिया वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस विवाद में एक पक्षकार होने का दावा कर दिया.
उसने 70 वर्ष बाद 30 मार्च 1946 के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती दी, जिसमें मस्जिद को सुन्नी वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित किया गया था. इसके बाद, सुप्रीम काेर्ट ने पांच दिसंबर 2017 से इस मामले की अंतिम सुनवाई शुरू करने का फैसला किया. बाद में यह तारीख बढ़ा कर 5 फरवरी 2018 की गयी. अब इसकी सुनवाई अगले साल जनवरी में शुरू होने के आसार हैं.
संविधान के सिद्धांतों के प्रति आदर
अब मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है और जनवरी में उसकी सुनवाई प्रस्तावित है. सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि मामले को भूमि के विवाद के रूप में ही देखेगा, आस्थाओं के नहीं. उसने यह भी स्पष्ट किया कि यह मामला उसकी विशेष प्राथमिकता सूची में नहीं है.
इस बीच अनेक राम मंदिर समर्थक न्याय में विलंब को भी अन्याय बता कर सरकार पर कानून बना कर या अध्यादेश ला कर मंदिर निर्माण कराने का दबाव डाल रहे हैं, लेकिन ऐसा कोई कानून बना या अध्यादेश आया, तो संवैधानिकता की परख के लिए उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी.
संविधान का संरक्षक होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय की मान्यता यह है कि संसद सर्वसम्मति या शत-प्रतिशत समर्थन से भी संविधान की मूल आत्मा को नष्ट या खत्म करने वाला कानून नहीं बना सकती. उसने मंदिर निर्माण के कानून को भी संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ करार देकर रद्द कर दिया, तो? शायद इसलिए केंद्र सरकार इनसे बचना चाहती है.